Difference Between Old and New Films-बॉलीवुड की पुरानी Vs नई फ़िल्में
बॉलीवुड की हिंदी फ़िल्में और उसका संगीत हमेशा से ही लोगों के मनोरंजन का केंद्र रहे हैं। पहले रेडियो और फ़िल्में ही मनोरंजन का प्रमुख साधन थे। देश मे मनोरंजन के लिए बॉलीवुड की हिंदी फ़िल्मों का योगदान सदा से ही उल्लेखनीय रहा है।
अपनी शुरुवात के समय से लेकर अब तक मनोरंजन की इस विधा में बड़े बदलाव होते रहे हैं। भारत में सन 1913 में दादा साहब फाल्के की फिल्म "राजा हरिश्चंद्र" से मूक सिनेमा की शुरुवात हुई। फिर 1931 में आर्देशिर ईरानी निर्देशित "आलम आरा" से बोलती फिल्मों (टाकी) का युग प्रारम्भ हुआ।
फिल्मों के प्रारम्भिक दौर में लम्बे समय तक फ़िल्में ब्लैक एंड वाइट हुआ करती थी। बाद में इसमें कलर जुड़ने के साथ 35 mm से सिनेमास्कोप, 70 mm पर्दा होता गया और इसका विस्तार अब भी जारी है। तकनीकी तौर पर उन्नत होने के बावजूद क्या आज की फ़िल्में दिल को छूती हैं? अथवा बॉलीवुड की पुरानी फिल्मों या अभी के दौर की नई फिल्मों में से लोग किसे पसंद करते हैं?
इसका एक जवाब यह होगा कि स्वाभाविक रूप से पुरानी पीढ़ी के लोग पुरानी फिल्मों को और नई पीढ़ी वाले नई फिल्मों को पसंद करेंगे। पर वास्तव में नई या पुरानी फिल्मों में से किसका चयन करें, इसके लिए निम्नलिखित बिंदुओं के आधार पर विचार करना आवश्यक है।
बॉलीवुड की पुरानी और नई फिल्मों में अंतर (Difference Between Old and New Films)
1. फिल्मों की संरचना -
पुरानी फिल्मों में कहानी को सीधे और सरल तरीके से फिल्माया जाता था और फिल्मों का अंत एक संदेश के साथ होता था, लेकिन अब आपको शायद ही कोई संदेश वाली फिल्म याद हो। पुरानी फिल्मों में हीरो, हिरोइन, विलेन और कॉमेडियन का बना बनाया ढांचा होता था और इनके इर्द गिर्द ही कहानी बुनी जाती थी।
पहले की फिल्मों में कॉमेडियन की भूमिका भी हीरो के समकक्ष हुआ करती थी और वह प्रायः हीरो का दोस्त हुआ करता था। कॉमेडियन महमूद इसी श्रेणी में थे, जिनका रोल और फीस किसी हीरो से कतई कम न थी।
पहले नायक का अर्थ था अच्छाई और सद्गुणों से भरा हुआ आदमी, वो सिर्फ अच्छे काम करता था। विलेन यानी शराब और सिगरेट पीने वाला, गरीबों का शोषण करने वाला और तस्करी, कालाबाज़ारी जैसे समस्त बुरे काम करने वाला व्यक्ति।
पुराने समय की फिल्मों में प्राण, अजीत, प्रेमचोपड़ा, रंजीत, मदनपुरी व जीवन जैसे स्थापित खलनायक हुआ करते थे। हीरो को इन बुरे लोगों से संघर्ष करते हुए दिखाया जाता था और फिल्म के अंत में अच्छाई यानी हीरो की जीत होती थी।
नायिका भी अक्सर पारम्परिक भारतीय परिधान पहनने वाली, सदाचारी दिखाई जाती थी। पहले की फिल्मों में रोमांटिक दृश्य में चुम्बन आदि दिखाने से परहेज किया जाता था, ऐसे सीन को प्रतीकों (जैसे दो गुलाब के फूलों को मिलते हुए दिखाना) के माध्यम से फिल्माया जाता था। आधुनिक कपड़े पहनना, बिंदास अदाएं दिखाना शशिकला और बिन्दु जैसी खलनायिकाओं का काम था।
आज के दौर की फिल्मों में विलेन और कॉमेडियन का होना पहले की तरह अनिवार्य नहीं रह गया है। क्योंकि आज का हीरो नेगेटिव भूमिका भी कर सकता है और हीरोगिरी के साथ साथ कॉमेडी भी कर लेता है। उसी तरह नायिका भी वो सभी काम कर सकती है जो पुरानी फिल्मों में खलनायिका के लिए होते थे।
आज के समय में प्रयोगात्मक फ़िल्में अधिक बन रही हैं। इसका एक कारण मल्टीप्लेक्स कल्चर के चलते ऐसी फिल्मों का प्रदर्शन करना अब आसान हो गया है। मल्टीप्लेक्स की ऑडी 100-150 दर्शकों से ही फुल हो जाती है इसलिए प्रयोगात्मक फ़िल्में देखने वाले दर्शकों की संख्या कम होने पर भी यह घाटे का बिज़नेस नहीं होता। परन्तु पहले 1000 -1200 सीट के एकल सिनेमा हुआ करते थे जिसे 100 दर्शकों के लिए चलाना घाटे का सौदा था।
इसका अर्थ यह नहीं है कि प्रयोगात्मक फ़िल्में पुराने समय में नहीं बना करती थीं। इस तरह की फ़िल्में पहले भी बना करती थी। सुनील दत्त अभिनीत फिल्म "यादें", संजीव कुमार की "कोशिश", बी. आर. चोपड़ा द्वारा निर्मित राजेश खन्ना स्टारर "इत्तेफ़ाक़" और राजबब्बर अभिनीत "इन्साफ का तराजू" जैसी कई फ़िल्में हैं जो लीक से हटकर बनाई गईं थीं।
80-90 के दशक में श्याम बेनेगल (फ़िल्में -कलयुग, मंडी, त्रिकाल) और गोविन्द निहलानी (फ़िल्में -आक्रोश, अर्धसत्य, हजार चौरासी की माँ ) जैसे निर्देशकों ने लीक से हटकर फ़िल्में बनाई, जिसे कला फिल्म या आर्ट सिनेमा कहा जाने लगा।
पुराने दिनों में मदर इंडिया, मुगले आज़म, आवारा, दो बीघा ज़मीन, प्यासा जैसी फिल्में बनीं जो हिंदी फिल्मों के इतिहास में मील का पत्थर साबित हुईं। इन फिल्मों को आज भी देखा और पसंद किया जाता है और आगे भी याद किया जाता रहेगा। परन्तु आज के दौर की फ़िल्में जल्द ही भुला दी जाती हैं और दर्शकों पर लम्बे समय के लिए अपनी छाप नहीं छोड़ पाती हैं।
पुराने समय में विमल रॉय, राज कपूर, हृषिकेश मुखर्जी, वी शांताराम और गुरुदत्त जैसे दिग्गज निर्देशक हुए हैं। फिल्म मेकिंग इनका पैशन था और उनकी अपनी एक शैली थी। अपनी शैली और कला से समझौता किये बगैर इन्होंने फ़िल्में बनाईं जिसे लोगों ने न केवल सराहा बल्कि इनकी अधिकतर फिल्मों को बेहद पसंद भी किया गया।
80- 90 के दशक में एक दौर मनमोहन देसाई जैसे निर्देशकों का भी आया जिनकी फिल्मों का उद्देश्य केवल मनोरंजन करना मात्र था। अमर अकबर एंथोनी, परवरिश, सुहाग ऐसी ही फ़िल्में थीं, इन्हें मसाला फिल्म कहा जाता था।
इसमें कहानी "खोया- पाया" फॉर्मूले पर आधारित होती थी, जिसमें बचपन के बिछुड़े भाई अलग अलग जगहों पर पलते और अंत में मिल जाते थे। इस प्रकार फिल्म का सुखद अंत होता था। ये फ़िल्में मल्टी स्टारर होती थीं, जिसमें एक हीरो अमिताभ बच्चन हुआ करते थे। इस तरह की फिल्में बॉक्स ऑफिस पर बेहद सफल रहीं थी।
अभिनय की बात करें तो पुराने समय के हीरो का अपना एक स्टाइल हुआ करता था और वे ज्यादातर फिल्मों में उसी रंग ढंग में नज़र आते थे। जैसे दुखांत भूमिकाओं के कारण दिलीप कुमार का नाम ही ट्रेजडी किंग पड़ गया था। देवानंद शहरी बाबू स्टाइल के लिए और राजकपूर सीधे सादे आदमी या चार्ली चैपलिन स्टाइल के लिए जाने जाते थे।
इनके बाद आये सुपर स्टार राजेश खन्ना, जिनका गर्दन झटककर बोलने का अपना एक रोमांटिक स्टाइल था। राजकुमार और शत्रुघ्न सिन्हा अपनी डायलॉग डिलीवरी के लिए प्रसिद्द थे। लोग इनका डायलॉग सुनने थिएटर में जाते थे और तालियां बजाकर मज़ा लेते थे। वहां पर संवादों की प्रमुख भूमिका थी। मनोज कुमार अपनी देशभक्ति से परिपूर्ण फिल्मों के लिए "भारत कुमार" कहे जाते थे, वहीं अमिताभ बच्चन को अपनी भूमिकाओं के कारण "एंग्री यंग मैन" कहा जाता था।
आजकल के नायकों की ऐसी कोई छवि नहीं है, अब तो फिल्म के हिसाब से अपना वजन भी कम -ज्यादा कर लिया जाता है जिससे चरित्र ज्यादा विश्वसनीय लग सके। अभिनय क्षमता आज के ज्यादातर कलाकारों में भरपूर दिखाई पड़ती है। उदाहरण रूप में मनोज बाजपेयी, आयुष्मान खुराना, राजकुमार राव जैसे हीरो और संजय मिश्रा, पंकज त्रिपाठी, अन्नू कपूर जैसे चरित्र कलाकारों का नाम लिया जा सकता है।
2. गीत संगीत -
पुरानी फिल्मों में गीत संगीत का बहुत अधिक महत्व था। हम कह सकते हैं पुरानी फिल्मों की जान उसके गाने हुआ करते थे। बहुत सी फ़िल्में तो सिर्फ अपने कर्णप्रिय संगीत की वजह से सफल हुआ करती थीं। फिल्म के गीत संगीत की वजह से दर्शक सिनेमा हॉल की तरफ खिंचा चला आता था।
गीतों में इतना जादू पैदा होने का कारण साहिर लुधियानवी, शैलेन्द्र, इंदीवर जैसे गीतकारों की कलम के साथ संगीतकारों की सुरों की साधना थी, जिसने हमें इतनी मधुर धुनें दीं।
पुराने दौर में नौशाद, खय्याम, रवि, ओ.पी.नैय्यर, एस. डी. बर्मन, शंकर-जयकिशन जैसे गुणी संगीतकार थे जो शास्त्रीय संगीत और रागों का इस्तेमाल अपनी रचनाओं में करने में माहिर थे। मो. रफ़ी, लता मंगेशकर, मुकेश, आशा भोंसले, महेंद्र कपूर, मन्ना डे जैसे गायकों ने अपनी आवाज़ से उन गीतों में चार चाँद लगा दिए।
पुरानी फिल्मों के गीतों को सुनकर आज भी लोग झूम उठते हैं, इनका कर्णप्रिय संगीत मन को असीम आनन्द की अनुभूति से भर देता है। परन्तु आज की फिल्मों के गाने, आने के साथ ही कहीं खो जाते हैं। अब नए गायकों और संगीतकारों की भरमार है, पर दिल को छूने वाले गीत आजकल कम ही सुनाई देते हैं, साल में कोई एकाध गाना ही ऐसा बनता है।
दरअसल आज के गाने सुनने की जगह देखने की चीज़ बन गए हैं, ज्यादातर गाने पंजाबी धुन पर आधारित डांस नंबर्स होते हैं। आजकल फिल्म का पात्र किसी भी क्षेत्र का हो, उसके गाने में पंजाबी शब्द डालना फैशन बन गया है। अब आधुनिक रिकॉर्डिंग रूम होते हैं जहां एक ही इलेक्ट्रॉनिक उपकरण की मदद से विभिन्न वाद्य यंत्रों की आवाज़ निकाली जा सकती है।
3. लोकेशन -
पहले की तुलना में अब हिंदी फिल्मों की शूटिंग, विदेशी लोकेशन में अधिक होने लगी है। पुराने समय में ज्यादातर सीन स्टूडियो में ही शूट किये जाते थे। फिर एक दौर ऐसा आया जब कश्मीर में शूटिंग करना निर्माताओं की पसंद में शामिल हो गया।
लव इन टोक्यो, संगम, चरस जैसी फिल्मों के बहुत से सीन विदेशों में शूट किये गए थे। यश चोपड़ा अपनी फिल्मों के गाने स्विट्ज़रलैंड में फिल्माने लगे थे, बाद में बहुत से फिल्म निर्माताओं ने इसका अनुकरण किया। आज बॉलीवुड फिल्मों की शूटिंग विदेशों की हर अच्छी लोकेशन पर संभव है, बहुत से देशों की सरकारें अपने यहां शूटिंग करने पर कई तरह की सब्सिडी भी देने लगीं हैं।
4. तकनीकी पक्ष -
आज तकनीकी अविष्कारों के चलते बॉलीवुड फ़िल्में, सिनेमा रील से निकलकर डिजिटल हो चुकी हैं। जिसमें दृश्य अधिक जीवंत लगते हैं और ध्वनि की स्पष्टता कई गुना बढ़ चुकी है। तकनीक का असर सिनेमा के सभी विभागों जैसे सेट डिजाइनिंग, फोटोग्राफी, एडिटिंग और कॉस्ट्यूम से लेकर मेकअप तक सभी में पड़ा है।
तकनीक की मदद से स्टंट दृश्यों का फिल्मांकन, पहले की तुलना में ज्यादा अच्छे तरीके से करना संभव हो गया है। भले ही यह अतिरंजित लगे, परन्तु आज के एक्शन डायरेक्टर, हीरो के एक मुक्के से पहलवान जैसे दिखने वाले कई गुंडों को एक साथ हवा में उड़ते दिखाते हैं। धमाके के साथ गाड़ियों को हवा में उड़ते हुए दिखाना अब बहुत आम बात है।
पहले एक्शन दृश्यों को इतना अधिक महत्व नहीं दिया जाता था। पुरानी फिल्मों में दर्शकों को हीरो और विलेन की फाइट में हर मुक्के के साथ ढिशुम ..ढिशुम की वही जानी पहचानी आवाज़ सुनाई पड़ती थी जिसे उन्होंने पिछली फिल्म में भी सुना था।
पुराने समय में फिल्म का प्रदर्शन करने से पहले सिनेमा हॉल तक फिल्म की रीलें पहुँचाना पड़ता था परन्तु अब एक ही स्थान से विभिन्न शहरों के सिनेमा घरों में फिल्म का प्रदर्शन किया जा सकता है। रील कटने के कारण फिल्म देखने में व्यवधान पड़ने का दौर अब समाप्त हो गया है।
पहले के दर्शक पंखे की हवा में फिल्म देखते थे फिर एयर कूलर का ज़माना आया परन्तु आज का दर्शक AC हॉल में बड़े पर्दे पर डॉल्बी डिजिटल साउंड का अनुभव करते हुए फिल्म देख पाता है। इसकी कीमत भी उसे चुकानी पड़ती है, 80 के दशक में जहां 2/-रूपये में टिकट लेकर सिनेमा देखा जा सकता था, वही अब उसे मल्टीप्लेक्स में 200- 300 रूपये खर्च करने पड़ते हैं, IMAX 3D में तो टिकट इसका भी 4 -5 गुना हो जाता है। अभी भारत के कुछ शहरों में ही IMAX थिएटर हैं।
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5. वितरण और कमाई -
आज की बॉलीवुड फिल्मों का बजट बढ़ गया है साथ ही कमाई भी भारत तक सीमित नहीं रह गई है। आजकल बड़े बजट की फ़िल्में अंतर्राष्ट्रीय बाजार और विदेशी वितरण को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, जिसे डॉलर सिनेमा कहा जाता है। ऐसी कुछ फ़िल्मों का बिज़नेस, देश की तुलना में विदेश में बेहतर रहा है।
अब फिल्मों से कमाई का नया जरिया सेटेलाइट राइट्स बेचना भी बन चुका है।ऐसे टीवी चैनल्स बड़ी संख्या में हैं जो बॉलीवुड मूवीज दिखाते हैं, फिल्म निर्माताओं को अपनी लागत का एक बड़ा हिस्सा इनसे प्राप्त होता है। अब तो नेटफ्लिक्स, अमेज़न जैसे प्लेटफार्म भी हैं जो बड़ी कीमत देकर फ़िल्में खरीद लेते हैं।
6. फिल्मों का प्रमोशन -
पुरानी फिल्मों का प्रमोशन आजकल की तरह नहीं किया जाता था, जिसमें फिल्म की टीम विभिन्न शहरों में जाकर प्रचार करती है और टीवी के लोकप्रिय कार्यक्रमों में उपस्थित होती है। पहले फिल्म का प्रचार रेडियो और समाचार पत्रों में विज्ञापन के जरिये किया जाता था। साथ ही थिएटर और शहर के प्रमुख क्षेत्रों में फिल्म के पोस्टर लगाए जाते थे। पहले ये बड़े- बड़े पोस्टर पेंटर से बनवाये जाते थे, अब इसकी जगह फ्लेक्स लगाए जाते हैं।
इस तरह देखा जाए तो हर दौर में कुछ न कुछ अच्छा होता ही है। पुरानी फ़िल्में अपने सुमधुर संगीत को लेकर बाज़ी मार जाती हैं तो नई बॉलीवुड फिल्में तकनीकी रूप से श्रेष्ठ हैं।
पुरानी फिल्मों के रीमेक और पुराने गानों के रीमिक्स के चलन के बीच आज़ के कुछ निर्देशक नया लेकर भी आ रहे हैं, जिसमें विविधता और मौलिकता दोनों ही दर्शकों को देखने मिल रही है। हिंदी फिल्मों के लिए अच्छा है, कि वे ऐसा कर रहे हैं।
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