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Saturday, 2 November 2019

Film kaise banti hai- फिल्म कैसे बनती है

Film kaise banti hai-फिल्म कैसे बनती है 

बॉलीवुड में प्रतिवर्ष बनने वाली हिंदी फिल्मों की संख्या 350 से अधिक होती है। जबकि भारत में सभी भाषाओँ को मिलाकर प्रतिवर्ष 1500 से अधिक फिल्में बनाई जाती हैं।

  प्रतिवर्ष बनने वाली फिल्मों की संख्या देखकर लगता है की फिल्म बनाना आसान काम है परन्तु ऐसा नहीं है।फिल्म बनाने के लिए पर्याप्त धन होने के साथ साथ एक जुनून और फिल्म मेकिंग के प्रोसेस की समझ होना जरूरी है। अन्यथा पैसे की बर्बादी होकर फिल्म के डिब्बाबंद होने के चांस बढ़ जाते हैं। 

    सामान्यतः  हम केवल उन फिल्मों के बारे में जान पाते हैं जो कम्पलीट होकर सिनेमाघरों तक पहुंच पाती हैं, परन्तु बहुत सी फ़िल्में ऐसी होती हैं जो विभिन्न कारणों से पूरी नहीं बन पाती और अधूरी होकर डिब्बाबंद हो जाती हैं।

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     वास्तव में फिल्म निर्माण एक खर्चीला और श्रम साध्य काम है जिसमें बहुत सारा पैसा और अनेक लोगों की मेहनत लगती है।  इसके बाद भी फिल्म, दर्शकों को पसंद आएगी या नहीं कुछ कहना मुश्किल होता है। पर्दे पर दिखने वाली दो - ढाई घंटे की फिल्म को बनाने में कई महीनों का समय लगता है। इसके अलग अलग स्टेज होते हैं।

   किसी फिल्म के निर्माण को मुख्य रूप से 3 भागों में बांटा गया है -  प्री प्रोडक्शन, प्रोडक्शन और पोस्ट प्रोडक्शन।


फिल्म निर्माण के प्रमुख चरण (Stage) -

1. प्री प्रोडक्शन (Pre-Production) - 

A. स्टोरी डेवलपमेंट -

फिल्म बनाने के पहले स्टेज में आता है फिल्म बनाने का कांसेप्ट, एक कहानी और स्क्रिप्ट जो कि एक फिल्म बनाने के लिए सबसे जरूरी होती है। फिल्म किस प्रकार की बनानी है - कॉमेडी, एक्शन, हॉरर या सामाजिक मुद्दों पर अथवा किसी के जीवन पर आधारित होगी, उसके अनुसार एक कहानी बनाई जाती है। यह फिल्म का बेस होता है जिसमें  स्टोरी, स्क्रीन प्ले, डायलॉग्स ये सारी चीजें डेवलपमेंट स्टेज में की जाती है। 

    कई बार  फिल्म बनाने के लिए निर्माता या निर्देशक एक कांसेप्ट लेखक को देता है जिसे डेवलप करके एक कहानी और स्क्रिप्ट तैयार की जाती है। लेखक इसे निर्माता निर्देशक को दिखाता है जिसमें आवश्यक सुधार के बाद फाइनल स्क्रिप्ट तैयार होती है। फिर संवाद लेखक, डायलॉग तैयार करता है। 

    एक बढ़िया स्क्रिप्ट वह होती है जो दर्शकों को पूरी फिल्म के दौरान बाँध कर रख सके यानि जिसकी कहानी हर उम्र के लोगों को भा जाए।

    स्क्रीनप्ले में शूटिंग के समय लगने वाली वस्तुओं (Properties) से लेकर चरित्र के अनुसार पात्रों की उम्र और उसके द्वारा पहने जाने वाले वस्त्र (Costume) आदि की पूरी जानकारी दी जाती है। इसके अलावा कैमरा एंगल जैसी तकनीकी बारीकियाँ भी स्क्रिप्ट में लिखी होती हैं। 

   कुछ लेखक अपने हिसाब से स्क्रिप्ट तैयार करके निर्माता निर्देशक को सुनाते हैं यदि निर्माता को लगता है कि इसके जरिये एक हिट फिल्म बन सकती है तो वह स्क्रिप्ट को खरीद लेता है। 
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B. बजट का निर्धारण  -

फिल्म के लिए एक बजट बनाया जाता है। यह इस पर निर्भर करेगा कि कहानी की मांग क्या है और उसे कितने भव्य रूप में प्रस्तुत किया जाना है। सेट कितना बड़ा और भव्य होगा और आउटडोर लोकेशन कौनसी होगी इसके आधार पर फिल्म का बजट प्रभावित होता है।

   बजट बनाते समय कलाकारों के कॉस्ट्यूम से लेकर उनके ठहरने -खाने और फिल्म की मार्केटिंग का खर्चा जैसे सभी व्यय का ध्यान रखना पड़ता है। 

C. फिल्म के लिए टीम (Crew) बनाना -

फिल्म निर्माण एक टीमवर्क है। इसके लिए डायरेक्टर, कास्टिंग डायरेक्टर, संगीतकार, कोरियोग्राफर, एक्शन डायरेक्टर, सिनेमेटोग्राफर जैसे अनेक तकनीकी लोगों की टीम की जरूरत पड़ती है। फिल्म के बजट के आधार पर इनका चयन किया जाता है। 

   कहानी में दर्शाये गए चरित्र के अनुसार कास्टिंग डायरेक्टर कलाकारों का ऑडिशन लेता है, फिर उसमें से कुछ अच्छे कलाकारों का चयन करता है। जिसे निर्माता निर्देशक द्वारा फाइनल किया जाता है। प्रमुख कलाकारों की फीस और उनकी डेट की उपलब्धता तय की जाती है, इन्हें साइनिंग एमाउंट देकर एक एग्रीमेंट करवाया जाता है।

D. फिल्म के सेट तैयार करवाना -

फिल्म कहाँ शूट होगी इसके लिए डायरेक्टर की पसंद के अनुसार लोकेशन तलाशी जाती है। फिल्म में दिखाए जाने वाले मकान, झोंपड़े या महल ज्यादातर स्टूडियो में तैयार किये जाते हैं। यह काम आर्ट डायरेक्टर का होता है जिसे प्रोडक्शन  डिज़ाइनर भी कहा जाता है। 

    फिल्म की कहानी अनुसार इनका निर्माण शूटिंग से पहले होना आवश्यक होता है। कई बार डायरेक्टर की सोच के अनुसार  झुग्गी झोपडी अथवा महल या अन्य कोई सीन हों उसे रियल लोकेशन में जाकर भी फिल्माया जाता है। इसकी योजना पहले से बनाई जाती है और आवश्यक परमिशन ले लिए जाते हैं। 

E. कास्ट्यूम तैयार करवाना -

स्क्रिप्ट में दर्शाये गए कैरक्टर्स के अनुसार मुख्य कलाकारों के कपड़े तैयार करवाने का काम कास्ट्यूम डिजाइनर का होता है। इसमें सीन के मुताबिक कपड़े डिजाइन किये जाते हैं जैसे हीरो के एक्शन सीन में पहने जाने वाले कपड़े गाने के सीन के लिए तैयार कपड़ों से अलग होंगे।

   कास्ट्यूम डिपार्टमेंट के लोग शूटिंग के समय सेट पर मौजूद होते हैं और सीन की जरूरत के कपड़े कलाकार को उपलब्ध करवाते हैं। 
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F. फिल्म का संगीत  -

कहानी की मांग के अनुसार फिल्म में गाने रखे जाते हैं। हिंदी फिल्मों के हिट होने में उसके संगीत की प्रमुख भूमिका होती है। गीतकार के द्वारा लिखे गीतों को स्वरबद्ध करने का काम संगीतकार का होता है। 

   फिल्म के  नायक -नायिका की आवाज़ से मैच करने वाले और किसी विशेष गाने  को सही ढंग से गा सकने वाले प्लेबैक सिंगर्स का चयन करके शूटिंग से पहले गीतों की रिकॉर्डिंग कर ली जाती है। 

G. शेड्यूल तय करना -

फिल्म का डायरेक्टर अपने सहयोगियों की मदद से फिल्म का शेड्यूल तय करता है। कभी कभी 15 दिन या महीने भर के लिए फिल्म के क्रू को आउटडोर शूटिंग के लिए बाहर भी ले जाना पड़ता है।

   यह देखा जाता है कि किसी आउटडोर लोकेशन या विशेष स्थान में कितने सीन शूट होने हैं उन सभी दृश्यों की शूटिंग एक शेड्यूल में करने की कोशिश की जाती है जिससे फिल्म का खर्चा कम होता है। 

   इसमें कई बार फिल्म के अंतिम सीन्स की शूटिंग पहले हो जाती है क्योंकि हो सकता है फिल्म के प्रारम्भिक सीन किसी और लोकेशन या सेट में फिल्माए जाने हों। 

H. शूटिंग पूर्व की अन्य तैयारी -

डायरेक्टर, सिनेमेटोग्राफर की मदद से तय करता है कि फिल्म, शूट किस तरह की जाएगी। किसी लोकेशन में कैमरा कहाँ रखा जायेगा, किसी कलाकार की एंट्री किस जगह से होगी और उसकी मूवमेंट कहाँ से कहाँ तक होगी, इसे ब्लॉकिंग कहा जाता है। साथ ही डायरेक्टर अपनी एक शॉर्टलिस्ट बनाता है जिसके आधार पर वह सीन शूट करता है जिसे स्टोरीबोर्डिंग कहा जाता है। 

    स्टोरीबोर्ड एक कॉमिक किताब की तरह होता है, जिसमें अलग-अलग सीन में क्या होगा, इसके चित्र बने होते हैं। इसमें एक्शन या कार चेसिंग जैसे सीन के क्रमवार चित्र होते हैं। ये चित्र कैमरामैन के लिए एक ब्लूप्रिंट या नक्शे का काम करते हैं। 

  स्टोरीबोर्ड की वजह से फिल्म शूटिंग के दौरान काफी समय बरबाद होने से बच जाता है। एक्शन सीन में अभिनेताओं के ऊँची बिल्डिंग से कूदने या चलती गाड़ी से जम्प मारने जैसे खतरनाक करतब करने के लिए स्टंटमैन रखे जाते हैं।

   फिल्म में कुछ ख़ास तरह का कैरेक्टर होने पर कलाकारों को वर्कशॉप अटेंड करवाया जाता है। जिसमें उस कैरेक्टर की बारीकियों से कलाकार परिचित होते हैं जिससे उन्हें परफॉर्म करने में आसानी होती है।

   शूटिंग से पहले रिहर्सल करवाई जाती है। इसमें डायरेक्टर अपना व्यू एक्टर को बताता है जिसके अनुसार एक्टर अपने अभिनय से उस पात्र को कैमरे के सामने जीवंत करता है।
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2. प्रोडक्शन (Production) या शूटिंग -

प्री -प्रोडक्शन के बाद आता है प्रोडक्शन (Production) स्टेज, इसमें पहले की गई प्लानिंग के अनुसार शूटिंग होती है। इसके लिए फिल्म का क्रू पहले से लॉक की गई लोकेशन पर जाकर शूटिंग की तैयारी करता है।

    कभी-कभी शूटिंग के लिए पूरे क्रू को दूसरे देशों में भी जाना पड़ता है। साथ ही लोकेशन तक शूटिंग के लिए जरूरी उपकरणों को भी ले जाना पड़ता है।

   इन सबकी ट्रांसपोर्टिंग और क्रू मेंबर के खाने पीने की व्यवस्था प्रोडक्शन हाउस द्वारा की जाती है। इस क्रू में स्पॉट बॉय, लाइट मैन, मेकअप आर्टिस्ट  से लेकर डायरेक्टर और सिनेमेटोग्राफर के असिस्टेंट तक लगभग 100 लोग शामिल होते हैं। क्रू मेंबर की संख्या फिल्म के बजट और सीन की जरूरत के हिसाब से कम ज्यादा होती रहती है।

  किसी सामान्य जन के लिए फिल्म की शूटिंग देखना उबाऊ और समय खर्च करने वाला काम लग सकता है। क्योंकि एक-एक सीन को टुकड़ों में बांटकर शूट किया जाता है जिसमें कई बार रिटेक होते हैं। 

   स्टूडियो में शूटिंग होने पर आर्ट डायरेक्टर की टीम सेट को शूटिंग के लिए रेडी करती है और जरूरत होने पर छोटे मोटे बदलाव कर लिए जाते हैं। यहां लोकेशन मैनेजर और लाइन प्रोड्यूसर एक्टिव रहते हैं। 

   शूटिंग स्पॉट पर कैमरा क्रू द्वारा अपने उपकरणों व लाइट्स आदि को यथा स्थान लगाकर चेक किया जाता है। मेकअप आर्टिस्ट, मुख्य कलाकारों के पहुंचने पर उनके मेकअप और हेयर स्टाइलिस्ट, बाल सँवारने के अपने काम में लग जाते हैं। 

   अगर कलाकार को कोई ख़ास लुक देना हुआ तो प्रोस्थेटिक मेकअप की जरूरत पड़ती है। यह काम इसके एक्सपर्ट मेकअप आर्टिस्ट द्वारा किया जाता है, जिसमें घंटों का समय लगता है।

  एक्टर अपने ड्रेस पहन कर चेक करते हैं और तैयार होकर  कैमरे के सामने आते हैं। बड़े कलाकारों की अपनी वैनिटी वैन होती है जहां से उन्हें  शॉट लेने के समय बुलाया जाता है और फिर शूटिंग का सिलसिला शुरू होता है। D.O.P. कैमरा और लाइट्स को चेक करता है और साउंड रिकॉर्ड करने वाली टीम रिकॉर्डिंग का सेटअप तैयार करती है। 

   कलाकारों को सीन की बारीकियां समझाई जाती हैं, फिल्म का निर्देशक उन्हें बताता है कि सीन में क्या करना है और कैसे एक्सप्रेसन  देना है। यहां डायरेक्टर की कुशलता पर निर्भर करता है कि वो कलाकारों से कितना अच्छा अभिनय करवा पाने में सफल होता है। 

    जब तक निर्देशक कलाकार के अभिनय से संतुष्ट नहीं होता तब तक सीन को बार-बार दोहराया या रिटेक किया जाता है। इस कारण कई बार एक सीन को फिल्माने में कई घंटे निकल जाते हैं। 

  डायरेक्टर के "कैमरा रोल और एक्शन" कहने के साथ शूट स्टार्ट होता है और उसके "कट" कहते ही कम्पलीट होता है। यह सिलसिला शिफ्ट खत्म होने तक चलता रहता है। 

     कई बार तकनीकी कारणों से और अलग-अलग दिशा से शूट करने के लिए भी सीन को बार-बार दोहराया जाता है। हर सीन जिसे बिना रुके फिल्माया जाता है, उसे एक "टेक" कहा जाता है। किसी लंबे सीन के लिए 50 या उससे अधिक टेक भी लिए जा सकते हैं। शूटिंग खत्म होने के बाद रफ़ एडिटिंग करके खराब टेक हटा दिए जाते हैं।
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3. पोस्ट पोडक्शन (Post production) -

फिल्म मेकिंग का यह अंतिम प्रोसेस होता है। इसमें मुख्य रूप से एडिटिंग, डबिंग, फोले (Foley) साउंड, विज़ुअल (VFX) और ऑडियो इफेक्ट्स, कलर ग्रेडिंग जैसे काम होते हैं फिर अंत में मास्टर प्रिंट तैयार किया जाता है। स्क्रिप्ट की मांग के अनुसार फिल्म में VFX का काम किया जाता है।

A. विज़ुअल इफ़ेक्ट (VFX) -

विज़ुअल इफ़ेक्ट में डिजिटली ऐसी चीज़ें बनाई जाती हैं जिन्हें कैमरे के द्वारा शूट करना कठिन होता है। इसके लिए एक पूरी टीम होती है इस काम में बहुत टाइम और पैसा खर्च होता है।

 B. एडिटिंग (Editing) -

आजकल फिल्म की शूटिंग डिजिटली होने के कारण कैमरा चिप को हार्ड डिस्क के जरिये सिस्टम में अपलोड कर दिया जाता है। फिर डायरेक्टर की सोच के अनुसार एडिटर, फिल्म की एडिटिंग करता है। इसी समय फिल्म की लेंथ डिसाइड हो जाती है कि उसका समय कितना होगा। 

   पहले रफ़ एडिटिंग की जाती है फिर बाद में उसे फाइनल करते हुए फिल्म को जर्कलेस बनाया जाता है। एडिटिंग में शॉट को इस तरह जोड़ा जाता है कि फिल्म की रोचकता को बनाये रखते हुए कहानी आगे बढ़े। फिल्म एडिटर उन सभी सीन्स को हटा सकता है जो कहानी को रोचकता प्रदान करने में अवरोधक लगें।

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C. डबिंग (Dubbing) -

शूटिंग के समय रिकॉर्ड हो जाने वाली बाहरी आवाज़ें और  नॉइज़  को  हटाना आवश्यक होता है यह काम डबिंग के जरिये हो जाता है। इसमें कलाकारों को डबिंग स्टूडियो में बुलाकर उनका सीन दिखाया जाता है फिर उनसे शूटिंग के समय बोला गया डायलॉग फिर से बुलवाया जाता है। कलाकार सीन के इमोशन के अनुसार डायलॉग बोलते हैं जिसे रिकॉर्ड कर लिया जाता है। 

D. साउंड (Sound) -

 फिल्म को प्रभावी बनाने में बैकग्राउंड म्यूजिक का रोल बहुत महत्वपूर्ण होता है यह काम बैकग्राउंड म्यूजिक डायरेक्टर फिल्म की थीम को ध्यान में रखकर करता है। किसी भी तरह का सीन चाहे वो सैड हो या कॉमेडी अथवा हॉरर उसमें उसी प्रकार का म्यूजिक डाला जाता है जिससे सीन का प्रभाव कई गुना बढ़ जाए।

   फिल्म में सुनाई पड़ने वाली विभिन्न आवाज़ें जैसे कलाकार के कदमों की पदचाप, ब्रेक लगने पर गाड़ी के टायर की आवाज़, बारिश में पानी के बूंदों के गिरने की आवाज़ जैसे साउंड फोले (Foley) आर्टिस्ट द्वारा क्रिएट की गई होती है। 

   रियल टाइम में वीडियो देखकर विभिन्न तरीकों या उपकरणों की मदद से ये आवाज़ें बनाई जाती हैं। अंत में बैकग्राउंड स्कोर, फोले साउंड, डबिंग आदि सभी साउंड ट्रैक्स को मिक्स किया जाता है।

E. कलर ग्रेडिंग -

लास्ट में फिल्म को कलर डिपार्टमेंट में कलर ग्रेडिंग के लिए भेजा जाता है।  इसमें फिल्म के विज़ुअल को बैलेंस करते हुए आकर्षक बनाया जाता है। कलरिस्ट फिल्म को ऐसा लुक देता है जो लोगों को अच्छा लगे। यहां फिल्म की ब्राइटनेस, डेप्थ आदि को कन्ट्रोल करके एक बेहतरीन फिल्म का लुक दिया जाता है। 

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2 comments:

  1. Very Good information

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  2. मुझे यह जानकारी बहुत ही रोचक लगी मै भी इस क्षेत्र मे सामाजिक मुद्दो पर कुछ स्क्रिप्ट लिखने का प्रयास कर रहा हूँ लेकिन इस कार्य को कैसे किया जाता है यह पता नही था । किन्तु आपने बहुत ही रोचक जानकारी दी है जिससे मुझे एक रास्ता नजर आ रहा है । सो बहुत बहुत धन्यवाद सर आपको ।

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